भारत में मीडिया के विकास के पहले चरण को तीन हिस्सों में बाँट कर समझा जा सकता है। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में
ईसाई मिशनरी धार्मिक साहित्य का प्रकाशन करने के लिए भारत में
प्रिंटिंग प्रेस ला चुके थे। भारत का पहला अख़बार
बंगाल गज़ट भी 29 जनवरी 1780 को एक अंग्रेज़
जेम्स ऑगस्टस हिकी ने निकाला। चूँकि हिकी इस साप्ताहिक के ज़रिये भारत में ब्रिटिश समुदाय के अंतर्विरोधों को कटाक्ष भरी भाषा में व्यक्त करते थे, इसलिए जल्दी ही उन्हें गिरफ्तातार कर लिया गया और दो साल में अख़बार का प्रकाशन बंद हो गया। हिकी के बाद किसी अंग्रेज़ ने औपनिवेशिक हितों पर चोट करने वाला प्रकाशन नहीं किया।
उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में
कलकत्ता के पास
श्रीरामपुर के मिशनरियों ने और तीसरे दशक में
राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक, मासिक और द्वैमासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पत्रकारिता के ज़रिये यह दो दृष्टिकोणों का टकराव था। श्रीरामपुर के मिशनरी भारतीय परम्परा को निम्नतर साबित करते हुए ईसाइयत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे, जबकि राजा राममोहन राय की भूमिका
हिंदू धर्म और भारतीय समाज के आंतरिक आलोचक की थी। वे परम्परा के उन रूपों की आलोचना कर रहे थे जो आधुनिकता के प्रति सहज नहीं थे। साथ में राजा राममोहन परम्परा के उपयोगी आयामों को ईसाई प्रेरणाओं से जोड़ कर एक नये धर्म की स्थापना की कोशिश में भी लगे थे। इस अवधि में मीडिया की सारवस्तु पर धार्मिक प्रश्नों और समाज सुधार के आग्रहों से संबंधित विश्लेषण और बहसें हावी रहीं।
समाज सुधार के प्रश्न पर व्यक्त होने वाला मीडिया का यह द्वि-ध्रुवीय चरित्र आगे चल कर औपनिवेशिक बनाम राष्ट्रीय के स्पष्ट विरोधाभास में विकसित हो गया और 1947 में सत्ता के हस्तांतरण तक कायम रहा। तीस के दशक तक अंग्रेज़ी के ऐसे अख़बारों की संख्या बढ़ती रही जिनका उद्देश्य अंग्रेज़ों के शासन की तरफ़दारी करना था। इनका स्वामित्व भी अंग्रेज़ों के हाथ में ही था। 1861 में
बम्बई के तीन अख़बारों का विलय करके
टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की स्थापना भी ब्रिटिश हितों की सेवा करने के लिए रॉबर्ट नाइट ने की थी। 1849 में
गिरीश चंद्र घोष ने पहला
बंगाल रिकॉर्डर नाम से ऐसा पहला अख़बार निकाला जिसका स्वामित्व भारतीय हाथों में था। 1853 में इसका नाम बदल कर 'हिंदू पैट्रियट' हो गया।
हरिश्चंद्र मुखर्जी के पराक्रमी सम्पादन में निकलने वाले इस पत्र ने विभिन्न प्रश्नों पर ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना की परम्परा का सूत्रपात किया। सदी के अंत तक एक तरफ़ तो उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय नेतृत्व का आधार बन चुका था, और दूसरी ओर स्वाधीनता की कामना का संचार करने के लिए सारे देश में विभिन्न भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा था। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ब्रिटिश शासन को आड़े हाथों लेने में कतई नहीं चूकती थी। इसी कारण 1878 में अंग्रेज़ों ने
वरनाकुलर प्रेस एक्ट बनाया ताकि अपनी आलोचना करने वाले प्रेस का मुँह बंद कर सकें। इसका भारत और ब्रिटेन में जम कर विरोध हुआ। 1885 में
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ जिसकी गतिविधियाँ उत्तरोत्तर मुखर राष्ट्रवाद की तरफ़ झुकती चली गयीं। भारतीय भाषाओं के प्रेस ने भी इसी रुझान के साथ ताल में ताल मिला कर अपना विकास किया। मीडिया के लिहाज़ से बीसवीं सदी को एक उल्लेखनीय विरासत मिली जिसके तहत
तिलक,
गोखले,
दादाभाई नौरोजी,
सुरेंद्रनाथ बनर्जी,
मदनमोहन मालवीय और
रवींद्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में अख़बारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। बीस के दशक में
गाँधी के दिशा-निर्देश में कांग्रेस एक जनांदोलन में बदल गयी। स्वयं गाँधी ने राष्ट्रीय पत्रकारिता में तीन-तीन अख़बार निकाल कर योगदान दिया।
लेकिन इस विकासक्रम का एक दूसरा ध्रुव भी था। अगर इन राष्ट्रीय हस्तियों के नेतृत्व में मराठा,
केसरी,
बेंगाली,
हरिजन,
नवजीवन,
यंग इण्डिया,
अमृत बाज़ार पत्रिका, हिंदुस्तानी, एडवोकेट, ट्रिब्यून, अख़बार-ए-आम, साधना, प्रबासी, हिंदुस्तान रिव्यू, रिव्यू और अभ्युदय जैसे प्रकाशन उपनिवेशवाद विरोधी तर्कों और स्वाधीनता के विचार को अपना आधार बना रहे थे, तो कलकत्ता का
स्टेट्समैन,
बम्बई का
टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, मद्रास का मेल,
लाहौर का
सिविल ऐंड मिलिट्री गज़ट और
इलाहाबाद का
पायनियर खुले तौर पर अंग्रेज़ी शासन के गुण गाने में विश्वास करता था।
मीडिया-संस्कृति का यह द्विभाजन भाषाई आधार पर ही और आगे बढ़ा। राष्ट्रीय भावनाओं का पक्ष लेने वाले अंग्रेज़ी के अख़बारों की संख्या गिनी-चुनी ही रह गयी। अंग्रेज़ी के बाकी अख़बार अंग्रजों के पिट्ठू बन गये। भारतीय भाषाओं के अख़बारों ने खुल कर
उपनिवेशवादविरोधी आवाज़ उठानी शुरू कर दी। अंग्रेज़ समर्थक अख़बारों के पत्रकारों के वेतन और सुविधाओं का स्तर भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन आदि से बहुत अच्छा था। ब्रिटिश समर्थक अख़बारों को खूब
विज्ञापन मिलते थे और उनके लिए संसाधनों की कोई कमी न थी। उपनिवेशवाद विरोधी अख़बारों का पूँजी-आधार कमज़ोर था। बहरहाल, अंग्रेज़ी पत्रकारिता के महत्त्व को देखते हुए जल्दी ही मालवीय, मुहम्मद अली,
ऐनी बेसेंट,
मोतीलाल नेहरू आदि ने राष्ट्रवादी विचारों वाले अंग्रेज़ी अख़बारों (लीडर, कॉमरेड, मद्रास स्टेंडर्ड, न्यूज, इंडिपेंडेंट, सिंध ऑब्ज़र्वर) की शुरुआत की। दिल्ली से 1923 में कांग्रेस का समर्थन करने वाले भारतीय पूँजीपति
घनश्याम दास बिड़ला ने
द हिंदुस्तान टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया। 1938 में
जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेज़ी के राष्ट्रवादी अख़बार
नैशनल हैरल्ड की स्थापना की।
1826 में कलकत्ता से
जुगल किशोर सुकुल ने
उदंत मार्तण्ड नामक पहला
हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित किया था। हिंदी मीडिया ने अपनी दावेदारी बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेश की जब
गणेश शंकर विद्यार्थी ने
प्रताप ,
बालमुकुंद गुप्त और
अम्बिका शरण वाजपेयी ने
भारत मित्र , महेशचंद्र अग्रवाल ने
विश्वमित्र और शिवप्रसाद गुप्त ने आज की स्थापना की। एक तरह से यह हिंदी-प्रेस की शुरुआत थी। इसी दौरान उर्दू-प्रेस की नींव पड़ी।
अबुल कलाम आज़ाद ने अल-हिलाल और अल-बिलाग़ का प्रकाशन शुरू किया, मुहम्मद अली ने हमदर्द का।
लखनऊ से हकीकत, लाहौर से प्रताप और
मिलाप और
दिल्ली से तेज़ का प्रकाशन होने लगा। बांग्ला में संध्या, नायक, बसुमती, हितबादी, नबशक्ति, आनंद बाज़ार पत्रिका, जुगांतर, कृषक और नबजुग जैसे प्रकाशन अपने-अपने दृष्टिकोणों से उपनिवेशवाद विरोधी अभियान में भागीदारी कर रहे थे।
मराठी में इंदुप्रकाश, नवकाल, नवशक्ति और लोकमान्य ;
गुजराती में गुजराती पंच, सेवक, गुजराती और समाचार , वंदेमातरम्; दक्षिण भारत में मलयाला मनोरमा, मातृभूमि, स्वराज, अल-अमीन, मलयाला राज्यम, देशाभिमानी, संयुक्त कर्नाटक, आंध्र पत्रिका, कल्कि, तंति, स्वदेशमित्रम्, देशभक्तम् और दिनामणि यही भूमिका निभा रहे थे।
यहाँ एक सवाल उठ सकता है कि यह राष्ट्रीय मीडिया किन मायनों में राष्ट्रीय था? इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ ब्रिटिश शासन की विरोधी थीं, लेकिन उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर उनके बीच वैसे ही मतभेद थे जैसे कांग्रेस और अन्य राजनीतिक शक्तियों के बीच दिखाई पड़ते थे। ब्रिटिश प्रशासन ने 1924 में मद्रास में एक शौकिया रेडियो क्लब बनाने की अनुमति दी। तीन साल बाद निजी क्षेत्र में ब्रॉडकास्ट कम्पनी ने बम्बई और कलकत्ता में नियमित रेडियो प्रसारण शुरू किया। लेकिन साथ में शौकिया रेडियो क्लब भी चलते रहे। प्रेक्षकों की मान्यता है कि जिस तरह इन शौकिया क्लबों के कारण अंग्रेज़ों को रेडियो की बाकायदा स्थापना करनी पड़ी, कुछ-कुछ इसी तर्ज़ पर प्राइवेट केबिल ऑपरेटरों के कारण नब्बे के दशक में सरकार को टेलिविज़न का आंशिक निजीकरण करने की इजाज़त देनी पड़ी।
बहरहाल, औपनिवेशिक सरकार ने 1930 में ब्रॉडकास्टिंग को अपने हाथ में ले लिया और 1936 में उसका नामकरण ‘आल इण्डिया रेडियो’ या ‘आकाशवाणी’ कर दिया गया।
हैदराबाद,
त्रावणकोर,
मैसूर,
बड़ोदरा,
त्रिवेंद्रम और
औरंगाबाद जैसी देशी रियासतों में भी प्रसारण चालू हो गया। रेडियो पूरी तरह से अंग्रेज़ सरकार के प्रचारतंत्र का अंग था। सेंसरशिप, सलाहकार बोर्ड और विभागीय निगरानी जैसे संस्थागत नियंत्रक उपायों द्वारा अंग्रेज़ों ने यह सुनिश्चित किया कि उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति के पक्ष में रेडियो से एक शब्द भी प्रसारित न होने पाये। दिलचस्प बात यह है कि यह अंग्रेज़ी विरासत भारत के आज़ाद होने के बाद भी जारी रही। अंग्रेज़ों के बाद आकाशवाणी को भारत सरकार ने उस समय तक अपना ताबेदार बनाये रखा जब तक 1997 में आकाशवाणी एक स्वायत्त संगठन का अंग नहीं बन गयी।
Comments
Post a Comment